(दुष्यंत जी की लिखी ये कविता मेरे साथ मेरे अज़ीज़तम कुछ ओर लोगो को बहुत पसंद है. इसलिए जब उनसे दिल की बात कहने का मोका आया तो इसका सहारा लेने से खुद को रोक नही पाया. कविता का मूल भाव दुष्यंत जी का ही है.... मैने बस अपने मन की बात कहने के लिए उनके शब्दों मे कुछ हेर फेर किया है... जिसके लिए मैं दुष्यंत जी से क्षमाप्रार्थी हूँ.)
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
मेरा वो प्यार आपको बताता हूँ
एक समंदर सा है उसकी आँखों में
मैं जहाँ डूब जाना जाता हूँ
वो किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर उसके पास जाता हूँ
वो मुझसे रूठ गई है जबसे
और ज़्यादा उसके करीब पाता हूँ
मैं उसे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
(अपने इस दुस्साहस के लिए दुष्यंत जी सहित उनके लाखो प्रशंसको से क्षमाप्रार्थी हूँ )
Post a Comment