धरती पर चार दीवारे खड़ी कर
देने भर से जो बना था उसी को वो घर कहता था. और रात को सोते समय उसके और चाँद तारो
के बीच में जो टूटी खपरैल आती थी उसे छत. इसी छत में बने एक सुराख़ से छन कर आने
वाले धूप के चंद टुकडो से खेलते उसका दिन बितता था. घर में जैसे जैसे धूप सरकती वो
इधर से उधर सरकता जाता. शरीर बनाते समय विधाता ने थोड़ी कंजूसी बरती थी लिहाज़ा उसके
पैर उसके शरीर का बोझ उठा पाने के काबिल नही थे. बाहर निकलेगा तो गिर पड़ेगा इसी डर
से माँ-बाप ने कभी बाहर की दुनिया देखने ही नही दी. जिस घर में खाने के भी फांके
हो उस घर में धूप के चंद टुकड़े ही उसके खेलने का जरिया थे.
माँ उसको खेलते देखती और
बेबसी में बस मुस्कुरा देती. वो हमेशा कहता देखना एक दिन इस पुरे घर में धूप भर जायेगी और हम खूब खेलेंगे.
एक रात जोर का तूफान आया और उस रात ना उस घर की छत बची ना दीवारे...
एक रात जोर का तूफान आया और उस रात ना उस घर की छत बची ना दीवारे...
अगली सुबह बच्चा उठा.. जहाँ
तक उसकी नज़र गयी... धूप ही धूप थी... बस धूप
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