पिछले दिनों चर्चित पाकिस्तानी फिल्म "बोल" देखी. हालाँकि जिन लोगो ने इन्ही निर्देशक महोदय की "खुदा के लिए" देखी होगी उन्हें ये फिल्म थोड़ी कमतर लगी होगी, मगर फिर भी अपने तमाम झोलों के बावजूद पाकिस्तान के माहौल को देखते हुए इतनी यथार्थ परक फिल्म बनाने के लिए निर्माता-निर्देशक को कोटिश: साधुवाद.
दरअसल फिल्म की शुरुआत की बड़ी दमदार है. चंद घंटो बाद फांसी के फंदे पर झूलने वाली लड़की का मीडिया के सामने अपनी कहानी बयां करना, पलकों के कोरों को भीगने के लिए काफी था. उसके बाद जैसे जैसे फिल्म बढती गयी एक के बाद एक नायिका के जख्म उघड़ने लगे. मुस्लिम परिदृश्य में लिखी इस कहानी में लगभग हर दूसरी महिला की कहानी नजर आती है, भले देश कोई हो हमारे यहाँ औरतों की कमोबेश यही स्थिति नज़र आती है. उन्हें या तो महज बच्चे पैदा करने की मशीन समझ लिया जाता है या हुकुम की तामिल करने वाली बांदी. फिल्म में कुछ पात्र बड़ी ही शिद्दत के साथ लिखे गए है.. मसलन हर बात को तार्किक रूप से सोचने और उस पर अडिग कड़ी नायिका हो या सब कुछ जानबूझ कर चुपचाप सहन करती उनकी लाचार मां... पिता से छुप कर आकाश में उड़ने के ख्वाब बुनती नायिका की बहन. या उन सब से अलग थलग अपने नपुंसक होने का दंश झेलता सैफू. और उन सब पर भारी बात बात पर अपनी खीज मिटने को घर की औरतो पे हाथ उठता नायिका का पिता. सभी किरदार कहानी को आगे बढ़ाने में अपना सहयोग करते है. फिल्म की कहानी तो मन को झकझोरने वाली है ही.. संवाद उससे भी जानदार.. मसलन ...
नायिका का ये कहना की "हर बरस हमारे घर दाई आने लगी". या "मर्द हो, इसलिए जब लाजवाब हो गए तो हाथ उठा दिया." इसी तरह जब सैफू मर्द होने के गुण बताता है तो कहता की "मर्द बनने के करना ही क्या होता है.. थोडा माथे पर त्योरियां चढ़ा लो, आवाज को भारी बना लो, बदजबान बनो... और घर की औरतो को दो-चार हाथ जमा दो."
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